ज़िन्दगी के पलों को
गुणा, भाग कर ,
घटा, जोड़ कर ,
बहा दिया था नदी में एक दिन मैने ।
नदी -
जो ज़मीन के नीचे,
पुरखों के पांव तले
और मेरे पाँव के नीचे भी
बहती रही है सदियों से ।
मैं देखती हूँ
कि उभर आये हैं भित्तिचित्र
नदी के मुहाने पर ।
और...
ये भी देख रही हूँ मैं
कि इतिहास के संदर्भों की दरारों में
ठहर गया है पानी,
और इसी पानी में
खिल गये हैं कमल के फ़ूल ।
चकित हूँ मैं
इस दृश्य को देख कर
कि इसी नदी के मुहाने पर
किलकारी ले रही है नई सभ्यता
ठीक ऐसे ही
जैसे हँसता है नवजात शिशु
माँ की गोद में आकर । ....
Wednesday, May 21, 2008
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8 comments:
सच कहूँ तो एक गंभीर विषय का दर्शी है यह काव्य रचना… बहुत ही सार्थक रुप में आपने कविता के माध्यम से सभ्यता का आधार समझाया… आपको मेरा साधुवाद्।
जैसे हँसता है नवजात शिशु
माँ की गोद में आकर ।
-पूरा सार है इसमे. बहुत उम्दा भावाव्यक्ति.बहुत बधाई.
बहुत सुन्दर ..नदी और सभ्यता का गीत
बहुत सुंदर. बहुत ही उम्दा रचना...
शुक्रिया इसे बाँटने के लिए.....आखिरी पंक्तिया बहुत सुंदर है....
नदी -
जो ज़मीन के नीचे,
पुरखों के पांव तले
और मेरे पाँव के नीचे भी
बहती रही है सदियों से ।
kya khoob likha hai Rajni ji !Bahut saari shubhkaamnaayein.
बहुत ही अच्छी लगी - मैं तो आस पास का सटीक संक्षिप्त सशक्त वर्णन मान कर पढ़ गया - शायद इसीलिए कि स्वयं भी अचंभित हूँ - इतना सब कुछ बनता देखने में - ख़ास कर संदर्भों की दरारों में ठहरा पानी, और इसी पानी में खिलने वाले फूल - साभार मनीष
बहुत सुंदर रचना!
यह पंक्तियां बहुत पसंद आईं
'कि इसी नदी के मुहाने पर
किलकारी ले रही है नई सभ्यता
ठीक ऐसे ही
जैसे हँसता है नवजात शिशु
माँ की गोद में आकर । ....'
बधाई!
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