साँझ के रँगों में
उदय होता वो पहला तारा,
मेरी आँखों में तैर रहा था,
रात भर सपनों में गूँथा,
सुबह आँख के कोरों से बह गया था,
सिरहाने सिर्फ़ उसका अहसास था,
भूलते हुए स्वप्न का
वह मौन प्रतीक था.
Friday, August 17, 2007
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5 comments:
वाह-वाह! गागर में सागर!
पर आज शाम फिर उगेगा।
उस तारे को दिल में जकड़ लें,
तो नई कविता में साकार होगा।।
वाह, स्वपन भूलने का भी सिर्फ अहसास ही है!!
बहुत बढ़िया, बधाई.
बहुत सुन्दर !
घुघूती बासूती
बहुत बहुत सुन्दर !
ब्लाग पर कविताओं और तुकबंदियों की भीड़ देखकर उकताया हुआ था, जहां ज्यादा देर ठहरना समय की बरबादी लगती है. लेकिन आपकी रचनाओं की बात ही अलग हैं. सहज-सरल, सुन्दर शब्दों में जीवन के भिन्न-भिन्न पहलुओं को आपने उकेरा है. पढ़ना, गुनना अच्छा लगा. लिखती रहें और इन्हें किताबों की शक्ल में भी लाएं, रजनी की ही तरह महकें.शुभकामनाएं.
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