बारिश बरसी गली चौबारे,
ऐसी बरसी पाँव पसारे,
लोग गीले, भीगे,
ढूँढने चले छ्प्पर किनारे.
चिड़िया भीगी पेड़ पर,
घने पत्तों के नीचे टहनी पर
चुहक-चुहक कर
गुस्सा करती सावन पर.
चौराहा, आँगन और चौपाल
धुले हैं ज्यों आज,
झाड़ू बुहार दी हो जैसे
आगुंतक के आने की खुशी में आज.
प्यासा गुलमोहर और अमलतास
तृप्त हुआ बौछारों से आज,
कहा, ठहर जाओ,
सजी है सेज लाल पीले फूलों से आज.
सुन लिया जैसे सावन ने
धनक के रँग घोल दिए नभ में,
तूलिका को ले कर
साँझ को सिन्दूरी किया पल में.
बारिश बरसी पल दो पल,
मैं सूखी भिगो रही थी पल,
तुम्हारे हाथ को थामें
सावन से मोती चुरा रही थी कल.
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Tuesday, July 31, 2007
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4 comments:
सुंदर अभिव्यक्ति है. बधाई.
बढिया भावपूर्ण अभिव्यक्ति है ।
बधाई !
“आरंभ”
सावन से मोती चुरा लेने की सुध कितनों को होती है आजकल ! बहुत अच्छी कविता !
चिड़िया भीगी पेड़ पर,
घने पत्तों के नीचे टहनी पर
चुहक-चुहक कर
गुस्सा करती सावन पर.
बहुत खूब!
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