नव वर्ष के कोरे पन्नों पर भेज रही हूँ गुहार,
जब राह के पँछी घर को लौटें,
जब पेड़ के पत्ते झर-झर जाएँ,
जब आकाश ठँड का कोहरा ओढ़े,
आँखों के पानी से लिखी पाती मिल जाए,
एक उजले स्वप्न सा आँखों में भर लेना,
आँखों की नमी से मुझको भिगो देना ।
नव वर्ष के कोरे पन्नों पर भेज रही हूँ गुहार ,
जब फ़सल कटने के दिन आयें,
धान के ढेर लगे हों घर द्वार ,
लोढ़ी, संक्राति और पोंगल लाये पके धान की बयार,
बसंत झाँके नुक्कड़ से बार-बार,
तुम सुस्ताने पीपल के नीचे आ जाना,
मेरी गोद में अपनी साँसों को भर जाना ।
नव वर्ष के कोरे पन्नों पर भेज रही हूँ गुहार,
जब भी भीड़ में चलते-चलते कोई पुकारे मुझे
और मैं पीछे मुड़ कर देखूँ ,
तुम मेरे कंधे पर हाथ रख कर,
कानों में चुपके से कुछ कह कर,
थोड़ी देर के लिये अपना साथ दे जाना,
भीड़ के एकाकीपन में अपना परिचय दे जाना ।
नव वर्ष के कोरे पन्नों पर भेज रही हूँ गुहार.
Tuesday, December 19, 2006
Saturday, December 02, 2006
दूज का चाँद
झील में उतरा है
दूज का चाँद ,
चाँदी की लकीर है
नीर में लिपटी हुई ।
शांत पानी की निश्चल स्त्ब्धता
उजाले को गोद में लिए बैठी है,
पानी को सहलाती ये उँगलियाँ
विचलित सपनों को मुट्ठी में बटोर रही हैं ।
बिखरे हुए रंग हैं पानी के कैन्वस पर,
भावों की तूलिका को पकड़े तम्हारा नाम लिख रही हूँ,
हर पल की भेंट को कैन्वस पर उतार रही हूँ,
जीवन की इस गहरी सतह पर
दूज के चाँद को उतार रही हूँ,
चाँदी की लकीर है या
मन से लिपटी अम्बर की परी कथा है कोई ?
दूज का चाँद ,
चाँदी की लकीर है
नीर में लिपटी हुई ।
शांत पानी की निश्चल स्त्ब्धता
उजाले को गोद में लिए बैठी है,
पानी को सहलाती ये उँगलियाँ
विचलित सपनों को मुट्ठी में बटोर रही हैं ।
बिखरे हुए रंग हैं पानी के कैन्वस पर,
भावों की तूलिका को पकड़े तम्हारा नाम लिख रही हूँ,
हर पल की भेंट को कैन्वस पर उतार रही हूँ,
जीवन की इस गहरी सतह पर
दूज के चाँद को उतार रही हूँ,
चाँदी की लकीर है या
मन से लिपटी अम्बर की परी कथा है कोई ?
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