मेरे मानस में अनमने बोल हैं
मन के क्षितिज पर अनकहे बोल हैं
कहती हैं कहानियाँ
यह मेरे मन के चोर हैं
अनबुझी सांस की पोर हैं
जीवन के प्रवाह के छोर हैं
फिर
सासें क्यों नही आती
जब गुजरती है मेरी छाया
तुम्हारे कदमों से लिपट के
ढलती है मेरी काया
तुम्हारे नयनों मे सिमट के
सोचती है मेरी भाषा
तुम्हारे शब्दों से निखर के।
समय के अवगुंठन
सिन्दूरी क्षितिज की प्रतीक्षा में
जैसे
रेतीले कण लहरों के साथ
हर बार लौट आते हैं
सूरज की परिक्रमा कर
मेरे विराम तुम पर पूर्ण हो जाते हैं
आकाश के विस्तार में तुम्हारे अर्ध सत्य
मेरे सत्य के बोध हो जाते हैं
तुम्हारे जीवन के केन्द्र बिन्दु
मेरे जीवन की परिधि हो जाते हैं
जीवन की अनबुझी सांसों के मौन
मेरे बोल बन जाते हैं ।
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Saturday, March 27, 2010
Tuesday, March 16, 2010
नीम
कागज़ पर कुछ टेढ़ी मेढ़ी लकीरें
नक्शे पर नीली, हरी लकीरें
बच्चों के मन में गढ़ गई थीं,
आज लकीरें सुलग रही थीं
बनती बिगड़ती बटोही सी
भटक रही थीं।
खबर थी,
सीमा को कल मोड़ दिया था
आज पहाड़ के उस पार पहुँचा दिया था
गुड़हल के फूल,
नीम का पेड़,
कल छज्जू मियाँ की खपरैल और
अहाते में बिछी धूप को
समेट कर
खेमे में गाढ़ दिया था।
खेमे से
दूर-दूर तक दिखता है
लकीरों का ताना बाना
क्षितिज, एक नितांत सीमा
जहाँ से सूर्य किरण
थकी हारी अंदर आती है,
खेमे के, वृत में
गुड़हल के फूल
और नीम के बौने पेड़
को सींचती है,
नीम का बौना पेड़
अब पनपता नहीं
ठूँठ सा अब
खेमे में ही रहता है
रोज़ जल जाता है
नीम का पेड़ कट-कट कर
गिर जाता है।
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नक्शे पर नीली, हरी लकीरें
बच्चों के मन में गढ़ गई थीं,
आज लकीरें सुलग रही थीं
बनती बिगड़ती बटोही सी
भटक रही थीं।
खबर थी,
सीमा को कल मोड़ दिया था
आज पहाड़ के उस पार पहुँचा दिया था
गुड़हल के फूल,
नीम का पेड़,
कल छज्जू मियाँ की खपरैल और
अहाते में बिछी धूप को
समेट कर
खेमे में गाढ़ दिया था।
खेमे से
दूर-दूर तक दिखता है
लकीरों का ताना बाना
क्षितिज, एक नितांत सीमा
जहाँ से सूर्य किरण
थकी हारी अंदर आती है,
खेमे के, वृत में
गुड़हल के फूल
और नीम के बौने पेड़
को सींचती है,
नीम का बौना पेड़
अब पनपता नहीं
ठूँठ सा अब
खेमे में ही रहता है
रोज़ जल जाता है
नीम का पेड़ कट-कट कर
गिर जाता है।
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Friday, March 12, 2010
बात
बातें, बातों और बातों के पीछे
खूबसूरत मंज़र भटकते हैं
खामोश से,
बंद किवाड़ के पीछे
ठाकुर जी से रहते हैं,
हर दिन नए जंगल बनते हैं,
दरदरे जंगल में चीड़ के पेड़
धूप छाँव का खेल खेलते हैं
रेशम के तार जब सिरा ढूँढते हैं
मन से उलझ जाते हैं
शाख पर तब बहुत से
ज्योति पुंज नज़र आते हैं
बारिश की बूँदों सी बातें
टिप-टिप कर के झरती हैं
मेरे अहसास भिगोती हुई
खिलती धूप की प्रतीक्षा करती हैं।
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खूबसूरत मंज़र भटकते हैं
खामोश से,
बंद किवाड़ के पीछे
ठाकुर जी से रहते हैं,
हर दिन नए जंगल बनते हैं,
दरदरे जंगल में चीड़ के पेड़
धूप छाँव का खेल खेलते हैं
रेशम के तार जब सिरा ढूँढते हैं
मन से उलझ जाते हैं
शाख पर तब बहुत से
ज्योति पुंज नज़र आते हैं
बारिश की बूँदों सी बातें
टिप-टिप कर के झरती हैं
मेरे अहसास भिगोती हुई
खिलती धूप की प्रतीक्षा करती हैं।
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Monday, March 01, 2010
पलाश के फूल
कोयल कुहकी
अमुआ महकी
पोखर पीला
सूरज निकला
ले फूलों के कलश कई
ड्योढ़ी फैले
अंगना खेले
नव पल्लव
पक्षी का कलरव
उल्ल्सित बसंत से खेल कई
गुब्बारे फूटे
गुलाल, रंग छूटे
अब गली ढूँढॆ
नुक्कड़ ढूँढे
वह दिवस जब बिखरे थे रंग कई
चौबारे के रंग
घर में हैं बंद
सूखी होली
जाए अबोली
बुलाए दर पर छपे पलाश के फूल कई।
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अमुआ महकी
पोखर पीला
सूरज निकला
ले फूलों के कलश कई
ड्योढ़ी फैले
अंगना खेले
नव पल्लव
पक्षी का कलरव
उल्ल्सित बसंत से खेल कई
गुब्बारे फूटे
गुलाल, रंग छूटे
अब गली ढूँढॆ
नुक्कड़ ढूँढे
वह दिवस जब बिखरे थे रंग कई
चौबारे के रंग
घर में हैं बंद
सूखी होली
जाए अबोली
बुलाए दर पर छपे पलाश के फूल कई।
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