Thursday, October 26, 2006

गली

इस कोने से उस कोने तक
इस मकान से उस चौराहे तक
हर रोज़ बाँग लगाती है ज़िन्दगी
गली में कस्बे सी समाती है ज़िन्दगी
धूप के साथ सरकती चारपाईयाँ
खोमचे वालों की घूमती रेढियाँ,
भुनती शकरगँदी, चने और मक्के,
मौहल्ले के अधपके किस्से और
सिलाइयों में बुनती कहानियाँ.
धूप हर घर में झाँक जाती है,
दस्तक दे कर सब को बाहर बुला लेती है,
साँझ तारों को बुला लाती है
रात भोर का हाथ थामें
गली में य़ूँ ही फेरी लगाती है.
इस ठिये से उस ठिये तक,
यूँ तो बहुत चली है ज़िन्दगी
फ़िर भी लगता है
दो पल में ही गुज़र गई ज़िन्दगी

Friday, October 20, 2006

दीपावली की शुभ कामनाएँ

कनक, जौ की बालियाँ हँसी,
वन्दनवार बाँध कर देहरी सजी,
तारे बिखरे जब धरा पर तो
रँगोली में रँगों की धनक रची.

दिये पूर कर सजे हर कोने में,
टिमटिमाए दिये हर कोने में,
अमावस का पर्व आया, उल्लास लाया,
आशा को पिरोया मन के हर कोने में.

य़ूँ ही आशा बनी रहे हर क्षण,
गुँथे वेणी गेंदे और गुलाब से हर पल,
दीपावली जब भी आए
अमावस में दूज का चाँद खिले हर पल

Sunday, October 01, 2006

एक पुरानी कविता

कविता कुछ पुरानी है,
सिराहने रखी किताब के पन्नों से,
हर दिन झाँकती है,
उम्र के साथ धूमिल होती
अस्पष्ट लकीरें,
गुलदावरी के समान अभी भी
महकती हैं,
सूखी पत्तियों की नाज़ुक
पाँखुरी में बैठी ज़िन्दगी,
धीमी होती नब्ज़ को
टटोलती है.